अकाल दृश्य


धुल   भी   उड़ती  नहीं  गोधूलि में
छप्परों  पर अब न मंडराता  धुँआ
उपग्रहों  ने छू  लिया आकाश  को
मर्म  धरती  का  रहा  है अनछुआ

शोर की  उंगली पकड़ कर आ गया
एक  सन्नाटा   शहर  में  गाँव  का
भूख  से   ऐंठी  अंतड़ियों  के  लिये
क्या करेंगे अब ये मलहम घाव का

दिल के  टुकड़ों को लगाये  वक्ष से
एक  बेचैनी   न  सोई   रात   भर,
जब  खुली  आँखें  शहर की भोर में
चार  लाशें  थी  पड़ी  फुटपाथ  पर.

जिंदगी  बनकर  समस्याएं   खड़ी
जोर  जुल्मों   का यहाँ  व्यापार  है
जिंदा लाशों की  नुमाइश के  लिये
लो   नया  वातावरण   तैयार    है.

बेचकर मुस्कान अपनी हर  सुबह
अश्क   आँखों  के   खरीदेंगे  कभी
चाँद   तारे   तोड़कर   आकाश   से
माँग   धरती   की   संवारेंगे  कभी

-- :  बसंत देशमुख  :--             

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