जलते हुए पेट हैं और सब, ठंडे पड़े अलाव हैं
ऐसे ही अपने गाँव हैं, ये छत्तीसगढ़ के गाँव हैं
बादल तो हो गये नपुंसक
धरती लगती बाँझ है
सुबह हो गयी असमय बुढ़ी
लगती जैसे साँझ है.
पीत रोग ग्रस गया धूप को, ज्वर से पीड़ित छाँव हैं
गलियाँ मरघट सी सूनी है
बिक रही लाज बाज़ारों में
सनसनी खेज कुछ लेख छपे
सब चेहरों के अख़बारों में
हाथ हुए हैं टूटे आयुध, मन मन भर के पाँव हैं
श्रम की गंगा थक गयी यहाँ
आँखों का जल भी रीत गया
मौसम बीते बारी बारी
इस तरह एक युग बीत गया
सब पासे उल्टे पड़े यहाँ, अब हार चुके सब दाँव हैं
ऐसे ही अपने गाँव हैं, ये छत्तीसगढ़ के गाँव हैं
-- : बसंत देशमुख :--
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