गीतकार की वसीयत


मथते हैं जब कलम से गुमनाम हलचलों को
बनते हैं  शिव स्वयं ही पीने  हलाहलों को

पहले  कल्पना में कुछ दृश्य डोलते हैं
फिर भाव की तुला पर कुछ शब्द तौलते हैं

शब्दों को जोड़ने की होती कड़ी चुनौती
वाक्यों को मात्रा की कसती है फिर कसौटी

वाक्यों के फूल चुनकर एक सूत्र में पिरोते
फिर नव रसों के रस में हर पंक्ति को भिगोते

राहों में छेड़ती है वह व्याकरण की बेटी
हर शब्द को लुभाती हर पंक्ति की चहेती

जब छंद सरगमों का  डोली पर जा के चढ़ता
तब गीतकार समझो शब्दों का ताज गढ़ता

तुम सुन रहे हो भाई मिट्टी के माधो बनकर
तुम सुन रहे हो भाई कबीरा के साधो बनकर

हम रोज़ दर्द पीकर गीतों में बोलते हैं
हम रोज़ खून अपना स्याही  में घोलते हैं

हम मोम के हैं पुतले अंगार पर खड़े हैं
साहित्य की दुधारी तलवार पर खड़े हैं

तुम जानते तो होंगे बिस्मिल की सरफरोशी
तुम जानते हो सोल्जे नित्सिन बना है दोषी

साहित्य के जलधि में जो भी लगाता  गोता
दुनिया में हर निराला पागल करार होता

रोते हैं सुर तुलसी रोता यंहा कबीरा
चुपचाप जिंदगी का पीती ज़हर है मीरा

मैं मुक्तिबोध की जब तस्वीर देखता हूँ
साहित्य मूर्तियों की तक़दीर देखता हूँ

काँटों से तन हुए हैं पत्तों से चेहरे हैं
भीतर से घुन लगा है बाहर से ये हरे हैं

यों तो हमारे सिर पर गीतों के सेहरे हैं
सहमी हुई कलम है इस बात से डरे हैं

इतिहास की धरोहर शायद न बन सकेंगे
साहित्य के पुजारी क्या बेकफन मरेंगे

ये वक्त की शिला पर जो लेख लिख रहे हैं
अनमोल हैं ये हीरे बेमोल बिक रहे हैं

यदि हो सके तो देना इतनी सी तुम गवाही
मेरी मौत पर बहाना दवात की सियाही

गीतों के पुष्प चुनकर रखना मेरे कफ़न पर
साहित्य का सिपाही लिखना मेरी कबर पर

-- : बसंत देशमुख :--

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