माटी के कर्ज़दार

हमें चाहिए काम
हमारी ले लो सुबहें शाम
लिए हुए नारों की तख़्ती
भूखे बेकारों की टोली
उस पर लाठी चार्ज
मचलती सूं सूं गोली
भीड़ भागती हुई छोड़कर
एक खून से लथपथ लाश
लगता है फिर टूट गया है
किसी झोपड़ी का विश्वास
कहीं आज के बाद भूल कर
किसी झोपड़ी के बचपन को
कालेजो में मत भटकाना
तुम्हे कसम है
अगर हो सके
उन हाथों में तुम
कुदाल और हलें थमाना
कंधों पर हल लिए
साथ में जब
बैलों की जोड़ी होगी
लिए उन हाथों में तुम
कुदाल और हल न थमाना
कंधों पर हल लिए
साथ में जब
बैलों की जोड़ी होगी
लिए लकुटिया एक हाथ में
फटी कमरिया ओढ़ी होगी
उन्हे देख इस हाल सबेरे
वे आषाढ़ के काले बादल
फुट फुटकर रो सकते हैं
देश तुम्हारे अभिशापों को
धो सकते हैं
कहीं देश का नया भविष्यत्
खेतों मे ही लेटा होगा
उसे जगाने वाला केवल
वह किसान का बेटा होगा
इन्ही हलों की नोकों से
अब यह धरती हरियाएगी
सच मानो
रूठी खुशिहाली
बिना बुलाये आयेगी
किन्तु ना जाने
इन बातों को सुनकर मेरी
क्यों गावों के बूढ़े बरगद
पागल जैसे हंस देते हैं
और प्रश्न के समाधान मे
शंकाओं से कस लेते हैं
शंका उनकी सही नहीं हो
ऐसी कोई बात नहीं है
गावों मे किसान के बेटे
भूखे पेट नहीं सोये हों
ऐसी कोई रात नहीं है

क्योंकि गांव की सुनी गलियाँ
कबसे खड़ी हुई हैं
आँख बिछाये
हरित क्रांति की अगवानी में
लिए अधर पर
प्यास युगों की
आँखें डूबी पानी में
किन्तु बदचलन हरितक्रांति तो
शहरों के उद्दानों में घूम रही है
लानो मे विशाल बंगलों के
नंगी खड़ी हुई है
फिर भी झूम रही है
और गांव में
खेत खड़े ग़मगीन
उदासी में डुबे खलिहान
चौपालों में बैठे हैं
सिर धुनते हुए किसान
गुमसुम गुमसुम
कई पहेली बूझ रहे हैं
राजनीति के नालों मे
सब डूब रहे हैं
सिर्फ सहारे को कुछ
तिनके ढूंढ रहे हैं
लगता है अब
इस माटी का
ऐसा ही कर्ज़
चुकाना होगा
फैला कर के हाथ
हर जगह
इनको शीश झुकाना होगा.

                                                          -:-:- बसंत देशमुख -:-:-

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