आत्महत्या

कगार  के पेड़ से बंधी नाव
सुबह शाम रोती है
हाय नदी की निर्मम छाती
हर रोज़ बड़ी क्यों होती है
मत कहना- दोषी  है पतवार
मत कहना दोषी है मंझधार
नदी कि छाती
नापते नापते कई बार
ऊब जाती है नाव
केवल नदी जानती है
जान बुझकर कई बार
डूब जाती है नाव

बसंत देशमुख -:-:-:-:-

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