दो क्षणिकायें
चाह
चाह नहीं है
अभिनन्दन हो
उदयांचल पर
दिनकर जैसा,
दूर क्षितिज पर
चिर प्रणम्य हो
धूमकेतु सा
ढलना मेरा
आस्था
ऎ कलम
चलते ही रहना
राह में रुकना नहीं |
टूट जाना
मुफलिसी में भले ही,
पर कभी
दौलत के आगे
भूल से झुकना नहीं |
-- : बसंत देशमुख :--
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