नव निर्माण की बेला में

योजना के कल्प वृक्ष रोपते चलो ।

पर्वतों की सम्पदा बुहार लो
खुली लटें नदी की भी संवार दो
मरुथलों की रेत हो सुहागिनें
बंजरों की नथ उठो उतार दो ।

वक्ष चीरते चलो समुद्र का -
सीपियों से मोतियाँ बटोरते चलो ।

रत्न गर्भ में लिए खदान हैं
लिए हुए कुदाल सब जवान हैं
सांस चिमनियों की गर्म हो सदा
यों लगे की पत्थरों में जान हैं ।

श्रम की बूंद भट्ठियों में झोंक कर -
देश को सुखद भविष्य सौंपते चलो ।

कोहनूर कोयले की खान में
यश मिले कुबेर का किसान में
श्रम का ताज हर श्रमिक के माथ पर
खून भगत का हो हर जवान में ।

युद्ध क्षेत्र हो कि कर्म क्षेत्र हो -
दुश्मनों के दर्प को रौंदते चलो ।

 -- : बसंत देशमुख :--

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