दर्दों का इतिहास

प्रत्यंचायें     टूट   गई       हैं
तुणीरों   में   तीर    रह   गए
तस्वीरें  थी  कभी    आँख  में
अब  तो  केवल नीर  रह  गए

अब  तक  बुनते  रहे  सुनहरे 
नारों   के   ये   जाल   जुलाहे
कंकालों  को  आश्वासन  की
भीख  बांटते   हैं   जब   चाहे

धुँआ उगलती रही चिमनियाँ
पर   चूल्हे   चुपचाप  सो गए
सड़कों  पर आ  गयी समस्या
समाधान  सब  कहाँ  खो गये

कागज़  पर  ही  राह  बनायी
कागज़ पर ही लक्ष्य  रह गये
करनी  के    उल्टे   प्रवाह  में
थोथे   सारे  कथ्य  बह   गये

बोये  थे  जब  बीज  आम के
पौधे  क्यूँ    बबूल   हो   गये
विश्वासों  के   सूद   फैलकर
संदेहों    के   मूल   हो    गये

इसलिए सबके जवान सपने
मरघट   की  ओर  मुड़   गये
दर्दों   का   इतिहास   बांचते 
फिर दर्दों के साथ जुड़  गये ।

बसंत देशमुख -:-:-:-:-

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